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सोमवार, 21 मई 2012

बीमा स्वास्थ्य और अल्मा आटा

भारत सहित दुनिया भर में गत 7 अप्रैल को एक बार फिर से विष्व स्वास्थ्य दिवस मना लिया है। विकासषील और 50 प्रतिषत गरीबों वाले हमारे देष में स्वास्थ्य का मतलब बीमारी और दवा तक ही सीमित हैं। ऐसे में अनायास ही अल्मा आटा की याद आ जाती हैं। 1978 में तत्कालीन सोवियत संघ के शहर अल्मा आटा में संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुषांगिक संगठन विष्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा आयोजित काफ्रेंस में पहली बार ’’सबके लिये स्वास्थ्य’’ के प्रति प्रतिबद्वता दिखाई गई थी। अल्मा आटा इस मायने में महत्वपूर्ण है कि पहली बार दुनिया की सारी सरकारें लोकतांत्रिक, तानाषाही, साम्यवादी या पूंजीवादी सभी ने प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा के सिद्वांतों को स्वीकारते हुये 2000 तक अपने-अपने देष के हर आम और खास आदमी को स्वास्थ्य सेवा देने का संकल्प लिया था। अल्मा आटा में ही यह माना गया था कि ’’स्वास्थ्य का मतलब केवल रोगों की अनुपस्थिति मात्र नहीं हैं वरन भौतिक, मानसिक एवं सामाजिक रूप से पूर्ण कुषलता स्वास्थ्य हैं।’’ 22 साल में पूरे किये जाने वाले वादे में सभी देषों की सरकारों ने स्वास्थ्य के 8 बिंदु भी तय किये थे। ये थे-पोषण, सुरक्षित पेयजल एवं स्वच्छता, स्वास्थ्य षिक्षा, मातृ एवं षिषु स्वास्थ्य देखभाल, लिंगभेद समाप्ति, टीकाकरण, स्थानीय बीमारियों की रोकथाम तथा बीमारी एवं चोट का उपचार। अल्मा आटा को 34 वर्ष बीत गये। इन 34 वर्षो में हमारे देष में कई सरकारें आयी, आधा दर्जन से ज्यादा प्रधानमंत्री भी बदले। देष का लगभग हर छोटा बड़ा दल प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर सत्ता का भागीदार भी रह चुका। परंतु अफसोस हर किसी ने अल्मा आटे के वादे को भुलाया, और भुलाया आम आदमी की प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा की जरूरतों को। बदतर है हालात 7 प्रतिषत से ज्यादा विकासदर का दावा और अगली पंचवर्षीय योजना में 10 प्रतिषत विकास दर की बात करते योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह और देष के अर्थषास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह विकास दर की चिंता तो कर रहे हैं पर देष में 18 वर्ष से कम उम्र की 90 प्रतिषत बालिकाओं में खून की कमी, 48 प्रतिषत बच्चों में कुपोषण के साथ लगभग 50 प्रतिषत परिवारों के गरीबी रेखा के नीचे होने पर ’’राष्ट्रीय शर्म’’ जैसा एक जुमला बोलकर चुप्पी साध जाते हैं। इन विकास पुरूषों को विकास की चिंता तो है पर आम आदमी की मूलभूत जरूरतों से ये अन्जान नजर आते हैंे। मोंटेक और मनमोहन की जुगलबंदी देष में हर आदमी को स्वास्थ्य देने की बजाय निजीकरण को बढ़ावा देने में लगी हुयी हैं। देष की सारी जनसंख्या तक स्वास्थ्य सुविधा पहुॅंचाने के लिये केवल 90 हजार करोड़ रूपये प्रतिवर्ष की दरकार है। जबकि सरकार बड़े औद्योगिक घरानों को लगभग 4 लाख करोड़ रूपये की टैक्स छूट प्रतिवर्ष दे रही है। आज भी देष की कुल जीडीपी का केवल 0.9 प्रतिषत ही स्वास्थ्य पर खर्च हो रहा है। जबकि यह कम से कम जीडीपी का 3 प्रतिषत होना चाहिये। निजीकरण की हिमायती यह सरकार स्वास्थ्य सेवा के नाम पर राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना का नया छलावा रच रही है। इस योजना के अंतर्गत हर आदमी को एक स्मार्ट कार्ड के जरिये किसी भी निजी अस्पताल में एक निष्चित राषि तक का इलाज मुफ््त कराने की सुविधा प्राप्त होगी। उपरी तौर पर तो यह योजना मनमोहक नजर आती है परंतु इसकी आड़ में निजीकरण को बढ़ावा देकर शासकीय स्वास्थ्य सेवाओं की कमरतोड़ देने का षंडयंत्र रचा जा रहा हैं। राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना में 80 प्रतिषत राषि केन्द्र और 20 प्रतिषत राषि राज्य सरकार लगायेगी। इस योजना की बजाय सरकार को सार्वभौमिक स्वास्थ्य पहुॅंच (यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज) पर ध्यान केंिद्रत करना चाहिये जो आम आदमी के हित में तो होगी ही, स्वास्थ्य के प्रति सरकार की जिम्मेदारी का आधार भी बनेगी। प्रदेश के हाल-बेहाल कुपोषण के लिये कुख्यात प्रदेष के हाल स्वास्थ्य सेवाओं की पहॅुंच के मामले में बेहाल हैं। प्रदेष के ग्रामीण इलाकों में बीमार होने पर इलाज की बजाय मौत ही नसीब होती हैं। हालात ये है कि षिषु मृत्यु के मामले में मध्यप्रदेष देष में पहले नम्बर पर हैं तो मातृ मृत्यु के मामले में चैथे नम्बर पर प्रदेष का नाम आता हैं। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिषन के अनुसार प्रदेष के 27 प्रतिषत बच्चे बुखार से मरते हैं तो 45 फीसदी निमोनिया और 8 प्रतिषत डायरिया की वजह से दम तोड़ देते हैं। यह आंकड़े तब हैं जब प्रदेष में मरने वाले कुल बच्चों में से केवल 40 प्रतिशत की ही मौतों की जानकारी ही मिल पाती हैं। अस्पतालों में डाॅक्टरों की उपलब्धता का आलम यह है कि प्रदेष के 15 जिलों में किसी भी सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में स्त्री रोग, षिषु रोग और निष्चेतना विषेषज्ञ का एक भी पद भरा नहीं है। प्रदेष भर में जहां स्त्री रोग विषेषज्ञ के 53.6 प्रतिषत पद रिक्त हैं वहीं बालरोग विषेषज्ञ के 43.7 प्रतिषत और निष्चेतना विषेषज्ञ के 48 प्रतिषत पद रिक्त है। ग्रामीण क्षेत्रों के हाल तो ये है कि रीवा, सागर शहडोल और नर्मदापुरम संभाग में निष्चेतना विषेषज्ञ के 100 प्रतिषत पद रिक्त हैं। स्त्री रोग विषेषज्ञों में रीवा संभाग में 90.6, शहडोल संभाग में 96, नर्मदापुरम में 100 और उज्जैन संभाग में 90 प्रतिषत पद रिक्त हैं। इन शर्मनाक स्थितियों के बीच प्रदेष की सरकार स्वास्थ्य के नाम पर बीमा योजना के जरिये आम आदमी को छलने के सिवा और कुछ भी नहीं दे रही हैं। हालात ये है कि प्रदेष में डाॅक्टरों विषेषज्ञों और स्वास्थ्यकर्मियों की नियुक्ति प्रषिक्षण और इलाज के लिये बुनियादी ढाॅंचे की कोई साफ घोषित नीति नहीं हैं। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिषन ने दूर दराज के गांव में सेवा देने वाले डाॅक्टरों को विषेष भत्ते का प्रावधान किया हैं। लेकिन पिछले तीन साल से इसकी मंजूरी अटकी पड़ी हैं। सरकार की चिकित्सा षिक्षा नीति से सरकार का नियंत्रण खत्म हो गया हैं और सरकार ने ही उसे खुले बाजार के हवाले कर दिया हैं। अब ऐसे मे सवाल यह है कि ’’सबके लिये स्वास्थ्य’’ का सपना क्या सिर्फ सपना ही रहेगा या हकीकत होगा।
ललित दुबे सीपीएचई फैलो